चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य
गुप्त साम्राज्य के शासक / From Wikipedia, the free encyclopedia
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (राज्यकाल ३७५ ई से ४१४ ई) भारत के गुप्त वंश के महानतम एवं सर्वाधिक शक्तिशाली सम्राट थे। गुप्त साम्राज्य के राज्यकाल में गुप्त राजवंश अपने चरम उत्कर्ष पर था। यह समय भारत का स्वर्णिम युग भी कहा जाता है। चन्द्रगुप्त द्वितीय , समुद्रगुप्त महान के पुत्र थे। उन्होंने आक्रामक विस्तार की नीति एवं लाभदयक पारिग्रहण नीति का अनुसरण करके सफलता प्राप्त की।
चन्द्रगुप्त द्वितीय | |
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विक्रमादित्य, भट्टारक, महाराजाधिराज | |
गुप्त सम्राट | |
शासनावधि | ल. 375 |
पूर्ववर्ती | समुद्रगुप्त, या रामगुप्त (सम्भवतः) |
उत्तरवर्ती | कुमारगुप्त प्रथम |
जीवनसंगी | ध्रुवदेवी |
संतान | |
पिता | समुद्रगुप्त |
माता | दत्त-देवी |
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने गुप्त सम्वत का प्रारम्भ किया। साँची अभिलेख में उसे 'देवराज' और 'प्रवरसेन' कहा गया है। विक्रमादित्य ने अपनी दूसरी राजधानी उज्जयिनी को बनाया। चन्द्रगुप्त ने विदानो को संरक्षण दिया, उसके दरबार में नवरत्न निवास किया करते थे जिनमें कालिदास, वराहमिहिर, धन्वन्तरि प्रमुख थे। उसने शक्तिशाली राजवंशों से वैवहिक सम्बन्ध स्थापित किए। उनके ही राज्यकाल में चीनी बौद्ध यात्री फाह्यान भारत आया था। उसके शासनकाल में कला, साहित्य, स्थापत्य का अभूतपूर्व विकास हुआ, इसलिए चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन काल को गुप्त साम्राज्य का स्वर्णयुग कहा जाता है। संभवतः भारत सोने की चिड़िया इसी कालखंड में कहा जाता था ।
चंद्रगुप्त द्वितीय की तिथि का निर्धारण उनके अभिलेखों आदि के आधार पर किया जाता है। चंद्रगुप्त का, गुप्तसंवत् 61 (380 ई.) में उत्कीर्ण मथुरा स्तम्भलेख, उनके राज्य के पाँचवें वर्ष में लिखाया गया था। फलतः उनका राज्यारोहण गुप्तसंवत् 61 - 5= 56 (= 375 ई.) में हुआ। चंद्रगुप्त द्वितीय की अंतिम ज्ञात तिथि उनकी रजतमुद्राओं पर प्राप्त हाती है- गुप्तसंवत् 90 + 0 = 409 - 410 ई.। इससे अनुमान कर सकते हैं कि चंद्रगुप्त संभवतः उपरिलिखित वर्ष तक शासन कर रहे थे। इसके विपरीत कुमारगुप्त प्रथम की प्रथम ज्ञात तिथि गुप्तसंवत् 96= 415 ई., उनके बिलसँड़ अभिलेख से प्राप्त होती है। इस आधर पर, ऐसा अनुमान किया जाता है कि, चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल का समापन 413-14 ई. में हुआ होगा।
चंद्रगुप्त द्वितीय के विभिन्न लेखों से ज्ञात देवगुप्त एवं देवराज-अन्य नाम प्रतीत होते हैं। अभिलेखों एवं मुद्रालेखों से उनकी विभिन्न उपाधियों- महाराजाधिराज, परमभागवत, श्रीविक्रम, नरेन्द्रचन्द्र, नरेंद्रसिंह, विक्रमांक एव विक्रमादित्य आदि- का ज्ञान होता है।
उनका सर्वप्रथम सैनिक अभियान सौराष्ट्र के शक क्षत्रपों के विरुद्ध हुआ। संघर्ष प्रक्रिया एवं अन्य संबद्ध विषयों का विस्तृत ज्ञान उपलब्ध नहीं होता। चंद्रगुप्त के सांधिविग्रहिक वीरसेन शाब के उदयगिरि (भिलसा के समीप) गुहालेख से, उनका समस्त पृथ्वी जतीने के उद्देश्य से वहाँ तक आना स्पष्ट है। इसी स्थान से प्राप्त चंद्रगुप्त के सामंत शासक सनकानीक महाराज के गुप्तसंवत् 82 (= 401-2 ई.) के लेख तथा आम्रकार्दव नाम के सैन्याधिकारी के साँची गुप्तसंवत् 93 (= 412-13 ई.) के शिलालेख से मालव प्रदेश में उनकी दीर्घ-उपस्थिति प्रत्यक्ष होती है। संभवत: चंद्रगुप्त द्वितीय ने शक रुद्रसिंह तृतीय के विरुद्ध युद्धसंचालन तथा विजयोपरांत सौराष्ट्र के शासन को यहीं से व्यवस्थित किया हो। चंद्रगुप्त की शकविजय का अनुमान उनकी रजतमुद्राओं से भी होता है। सौराष्ट्र की शकमुद्रा परंपरा के अनुकरण में प्रचलित इन मुद्राओं से भी होता है। सौराष्ट्र की शकमुद्रा परम्परा के अनुकरण में प्रचलित इन मुद्राओं पर चंद्रगुप्त द्वितीय का चित्र, नाम, विरुद एवं मुद्राप्रचलन की तिथि लिखित है। शक मुद्राओं से ज्ञात अंतिम तिथि 388 ई. प्रतीत होती है। इसके विपरीत इन सिक्कों से ज्ञात चंद्रगुप्त की प्रथम तिथि गुप्तसंवत् 90+ 0 है। फलतः अनुमान किया जा सकता है कि चंद्रगुप्त की सैराष्ट्रविजय प्रायः 20 वर्षों के सुदीर्घ युद्ध के पश्चात् 409 ई. के बाद ही कभी पूर्णरूपेण सफल हुई होगी।
चंद्रगुप्त के सेनाध्यक्ष आम्रकार्दव, अपने सांची अभिलेख में स्वयं को, अनेक समरावाप्तविजययशसूपताकः कहते हैं। इन अनेक समरों के उल्लेख से यह भी अनुमान किया जा सकता है कि चंद्रगुप्त ने शकयुद्ध के अतिरिक्त अन्य युद्ध भी किए होंगे। किंतु वर्तमान स्थिति में उनका विवेचन अप्रमाणित है। दिल्ली में कुतुबमीनार के पार्श्व में स्थित लौहस्तंभ पर किन्हीं (सम्राट्) चंद्र की विजयप्रशस्ति उत्कीर्ण है। चंद्र की पहचान प्राचीन भारत के विभिन्न सम्राटों से की जाती रही है (देखिए चंद्र)। किंतु प्राय: विद्वान् उनकी पहचान चंद्रगुप्त द्वितीय से करते हैं। यदि इस सिद्धांत को सही माना जाय तो कहना न होगा कि द्वितीय चंद्रगुप्त ने वंग प्रदेश में संगठित रूप से आए हुए शत्रुओं को पराजित किया एवं (युद्ध द्वारा) सिंधु के सात मुखों को पार कर वाह्लीकों को जीता। वंग को पहचान साधारणतया पूर्वी बंगाल (प्राचीन सम्राट) तथा बाह्लीक की बल्ख (वैक्ट्रिया) से की जाती हैं, यद्यपि कुछ आश्चर्य नहीं जो वाह्लीकों की निवास पश्चिमी पाकिस्तान में ही कहीं रहा हो। सम्राट् चंद्रगुप्त द्वितीय के साथ चंद्र के अभिज्ञान को मानने में कठिनाइयाँ भी हैं। चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपना राज्य पिता द्वारा उत्तराधिकार में प्राप्त किया था, किंतु लौहस्तंभ के चंद्र ने अपने स्वभुजार्जित विस्तृत साम्राज्य का उल्लेख किया है।